ऊब के गीत

सुनने के लिए


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चींटी

दीवार के उस कोने तक नहीं पहुंचती है रोशनी
या तो अंधेरा रहता है वहां
या परछाईयों के अंधेरे-उजाले

उसी एक ठंडी-अंधेरी दुनिया में
पड़ी है एक टीन की डिबिया।

कुछ पुराने कागज हैं जिसमें
टूटे-अनटूटे कुछ कंचे
कलाई-घड़ी का पुराना फीता
फाउंटेन पेन की एक निब.

वहां, उस टीन की डिबिया तक नहीं पहुंचती है रोशनी

अब चींटियां रहती हैं
टीन की उस डिबिया में
कागज/कंचे/घड़ी का नीला फीता/निब
सब उनका है
अब।

परछाईयां उनकी हैं

ठंडे-रोशनी की सारी दुनिया उनकी है अब।

– आदित्य.


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पता न चल पाने वाली घटना

ठंड से ठिठुरते उस एक बूढ़े ने
मौसम को कोसा
कुछ गंभीर-गंदी गालियां बक दीं मन-ही-मन

पता न चल पाने वाली एक घटना में
एक छोटा प्यारा बच्चा
अहक-अहक, सुबक-सुबक
सांसे टांग कर रोया
पेराम्बूलेटर में लेटे लेटे
जब उसकी मां दूर थी उससे
उसके लौट आने तलक चुप हो जाता है बच्चा
सुबकन बंद हो जाती है
जैसे कोई सुरीली तान चढ़कर उतर जाती है

पता न चल पाने वाली एक घटना में
उस बदसूरत लड़की को मिल जाता है
एक ब्वॅायफ्रेंड

पता न चल पाने वाली एक घटना में
चिड़िया गीत गाती है बेमौसम
जैसा कहा था माया एंजेलो ने-

‘चिड़िया गाती है क्योंकि उसके पास एक गीत है’

और उसे,
गाने के लिए मौसम की जरूरत नहीं
पतझड़, बरसात, पूस
सबमें उसके गीत
उसी के रहते हैं

हमें बस पता नहीं चल पाता है।

-आदित्य.


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बर्ड-मैन

वह आदमी कूदा तो था
छत से
मगर उड़ गया
अवसाद की शक्ति उसे ऊपर खींच ले जाती है

हवाओं में झूलता है उसका जिस्म
लटकते हैं जिसपर बादलों के फाहे

अब आसमान में चिड़िया गाती है
धरती पर छत उदास-अकेली है अब

जो भी यहां से कूदेगा
उड़ जायेगा

-आदित्य


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हार

मैं अपनी हार इस तरह स्वीकार कर लूंगा
लगभग जीतते हुए

लौट जाऊंगा अपने सैनिक
घुड़सवार वापस लेकर
जब तुम्हें लग रहा होगा तुम हार गए
तुम्हारी सेना की टुकड़ी का आकार जब घट रहा होगा
दिन-ब-दिन

जब तुम्हारे माथे पर पड़ने लगेगी शिकन
नींद उड़ जायेगी

मैं जानता हूं जीतने के लिए
मुझे पहले इससे गुजरना होगा
तुम्हारी हार वाली हालत से

मुझे हारना होगा पहले

तुम्हारे हारने से ठीक पहले लौट जाऊंगा मैं
युद्ध-स्थल में तड़पती लाशें छोड़कर,
तुम्हें घर लौटने के लिए छोड़ जाऊंगा

-आदित्य


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सूर्य-मिलन

धीरे धीरे सूर्य अब
पश्चिमांचल की ओर बढ़ चला है
उसने दिन का काम निपटा लिया है
उसका माथा ठंडा है अब

मुझे सूर्य की परछाइयां मिली हैं
एक-आध, इधर-उधर, छिटकी-बिखरी
मुझे तलाश है सूर्य की

सूर्य ठीक पश्चिम ढलान से उतर जाएगा
अनंत में

मैंने भी अपना काम निपटा लिया है
सूर्य की परछाईयां पकड़कर दौड़ूंगा मैं
ठीक पश्चिम ढ़लान की ओर

लिखकर रख दिया है एक पत्रनुमा किताब में
अपनी जिंदगी के रहस्य-वृत्तांत
किसी अनजान पथिक के लिए

मैं सूर्य से पहले पहुंचूंगा पश्चिम के ढ़लान
और हम एक साथ उतर जाएंगे
अतल अनंत में
किसी प्रपात की तरह.

-आदित्य.


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अंधेरे की आंखें चमकती हैं

रोज-रोज खाने के लिए पैसे चाहिए थे। कम से कम जीवित रहने के लिए खाना जरूरी था। खाने के लिए पैसों का इंतजाम करना पडता था।

जिसके लिए वह रिक्शा चलाता था।

रिक्शा चलाना यूं तो बहुत कठिन काम नहीं था पर जितना श्रम करना पडता था उसके लिहाज से कमाए हुए पैसे कम जान पड़ते थे। कम इसलिए भी जान पड़ते होंगे क्योंकि ज्यादा पैसों की जरूरत पड़ जाती थी हर महीने। जो पैसे मिलते थे, उसी में खाना, घर भेजना, दारू पीना आदि करना पड़ता था। रहना सबसे कठिन था। फिर भी रहना पड़ता था। दिन रिक्शा चला-चलाकर गुजार दिया करता था वह। रिक्शे पर कभी-कभी खूबसूरत लडकियां बैठती थीं। लड़कियों के लिए रिक्शा चलाने में कुछ तो आनंद होता ही होगा, ऐसा अनुमान किया जा सकता है।

वह और उसके साथी लड़कियों पर फिकरे भी कसते थे गाहे-बगाहे। लड़कियां उनसे नफरत करतीं थीं। कुछ रिक्शे वाले शरीफ होते थे। वह शरीफ नहीं था।

उसकी एक बीवी थी। एक छ: साल की बेटी भी थी। उसे अंधेरी चमकती रात में बीवी की बहुत याद आती थी। उसकी बीवी उसके मानकों में बहुत सुंदर थी। लेकिन वह अपनी सुंदर पत्नी से प्रेम करता था यह निष्कर्ष निकलना कठिन है। वह अपनी बेटी से जरुर प्रेम करता था। वह उसे डॅाक्टर बनाना चाहता था।

मेरी बेटी शोभा पढ़ने में तेज है और वह डॅाक्टर जरुर बनेगी, वह अक्सर सोचा करता और खुश हो जाता।

उसकी बीवी, उसे उसके दोस्त अकरम के फोन पर फोन किया करती। वह बीवी से ज्यादा अपनी बेटी से बातें करता था। बीवी से बात करने लिए ज्यादा कुछ होता भी नहीं था। क्या पता कब क्या मांग बैठे। नई साड़ी, नथनी, भाई की शादी में पहनने के लिए चूड़ियों का सेट। बच्ची के पास अभी ज्यादा मांगे नहीं थी। उसके पास अपना फोन भी नहीं था। यह कहानी उस समय की कहानी रही होगी जब सबके पास फोन नहीं हुआ करते रहे होंगे।

वह अपना खाना खुद बनाता था। रहना कठिन होने को बावजूद वह एक कमरे वाले एक छोटे से घर को किराये पर ले रखा था। उस कमरे में रहना वैसा ही था जैसे कि किसी की मृत्यु हो जाए और हम चुपचाप सिसक सिसक रोएं। उसके एक छोटे से कमरे में एक छोटा सा गंदला स्टोव था। उसके पास एक कूकर, एक कड़ाही और एक तवा था। कुछेकऔर बर्तन होंगे ही उसके पास। कुल मिलाकर उन्हें रखने की जगह नहीं होती थी उस कमरे में। बर्तन इधर उधर पड़े रहते। कमरे में एक-आध चूहे भी रहे ही होंगे उस समय। अंधेरे में उनकी आंखें चमकती थीं। नहीं-नहीं चूहों की आंखें शायद नहीं चमकती। वह कोई बिल्ली रही होगी।

उसकी बेटी कुछ दिनों से बीमार थी। उसे बुखार सा हुआ रहता था। चौराहे के डॅाक्टर को दिखाया था उसकी बीवी ने। डॅाक्टर बुखार की दवाईयां देता था। बुखार उतर जाता। दो तीन दिन मामला ठीक रहता फिर बुखार उपट आता। महीने भर से यह क्रम चल रहा था। बुखार था, बुखार ठीक हो जाते हैं। बच्चों को तो समय समय पल बुखार होना ही चाहिए। वे बिना चप्पल पहने घूमते हैं। धूल-मिट्टी खेलते हैं। बुखार हो जाने पर कम से कम वे चुपचाप बिस्तर पर वेटे लेटे दीवारें तो देखते रहते हैं। दिवारों पर बहुत कुछ लिखा रहता है जिसे सिर्फ बच्चे ही पढ़ सकते हैं। बड़े होने पर वो यह सब भूल जाते हैं।

उस दिन शाम को अकरम के फोन पर फोन आया था। हमेशा की तरह उसने अपनी बीवी से कम बातें की। उस दिन खबर आई थी कि उसका बेटी को अब बुखार न रहा है। अब उसकी सांसे बंद हो गई हैं। अंत समय में उसने पापा पापा कहा था। फोन भी तुरंत नहीं मिल पाया था। उसठी सांसें ठीक छ: बजे बंद हुईं थीं जब वह दारू पी रहा था। जब वह दारू पी रहा था, एक घूंट उसके गले में जाकर अटक गई थी। ठीक उसी समय उसके बेटी की सांसे बंद हुई होंगी।तब उसे दारु पीते हुए अजीब सा लगा था। हिचकी भी आई थी। शायद एक हिचकी के साथ उसकी सांस भी निकल गई होगी।

वह रोया नहीं। शायद दारू का प्रभाव था। अभी घर जा पाना भी संभव नहीं था। कोई ट्रेन, कोई बस नहीं थी इस टाइम। रात घिर आई थी। याद है उसे बचपन में एक बार उसकी गाय मर गई थी। गाय को जलाया नहीं गया। शायद बच्ची को भी न जलाया जाए। वह सुबह की ट्रेन से घर जा सकेगा। अभी अभी उसके पंख से उग आये हैं। वह थोड़ा सा उड़ा था। आसमान सांवला सा है अभी। उस पर एक चांद है। वह अपने कमरे से उड़कर सीधा गांव पहुंच जाएगा। वहां उसकी बेटी बुखार में तप्त कमरे की छत घूर रही होगी। बच्चों को कमरे की छत घूरनी चाहिए। छतों दीवारों पर लिखा हुआ बहुत कुछ सिर्फ बच्चे पढ़ पाते हैं।

नहीं, नहीं किसी ने उसके पंख काट दिये हैं। वह गिर पड़ा है। वह गिर रहा है। छत से नहीं, आसमान से भी नहीं, फर्श से नीचे। फर्श से भी नीचे। फर्श पर बर्तन पड़े हैं। बर्तन में जूठन। जूठन पर कीड़े। काले/नीले//भूरे/गंदे कीड़े।

उसके पंख जहां से कट गए थे, वहां से खून बह रहा है। एक छोटी सी प्यारी बच्ची दीवारों पर लिखा हुआ सा कुछ पढ़कर गुनगुना रही है।

-आदित्य।


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ठीक है, ग़ालिब

ठीक है
तुम जा बसे न पहाड़ों में
सुफेद बर्फीले गांव में
शहर में अकेला छोड़कर मुझे।

ठीक है।

यहां अब भी बारिश होती है
कालोनी के गेट पर लग जाता है पानी
तुम थे तो उस पानी में जगह जगह रख देते ईंट

अब वहां बड़े-बड़े पत्थर रखवा दिये हैं किसी ने
बारिश का पानी दब जाता है पत्थरों के नीचे

अमलतास पर खूब पत्ते खिले हैं इस फागुन, ग़ालिब

तुम चले गए पहाड़ों पर
तुमने अपना नाम लिख दिया था वहां गेट पर
एक छोटी सी शायरी के साथ
‘हम बयांबान में हैं, घर में बहार आई है’

तब क्या सच में तुम्हारे घर में बहार आई थी ग़ालिब?

अब मैं एक-एक कर तुम्हारे नज़्म पढ़ता हूं
तब नहीं पढ़ता था
तुम यहीं थे जब
तुम्हारे साथ चाय-सिगरेट का जब रिश्ता था

अब गेट पर ठिठक जाता हूं आफिस जाते वक्त
जब बारिश होती है तब ख़ास
मुझे वहां अक्सर गेट पर अहसास होता है
तुम्हें अकेले जाना न था
पहाड़ों पर वहां

शहर में बहुत अकेलापन है
लेकिन ठीक है, ग़ालिब
मन मारकर कह पड़ता हूं हर बार
ठीक ही है

बयाबान तो नहीं होगा पहाड़ों पर।

-आदित्य.


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मैंने गाँधी को नहीं मारा.

मैंने गांधी को नहीं मारा
किसी ने गांधी को नहीं मारा
वह तो खुद-ब-खुद मर गया
एक दिन

हम सबके हाथ में एक-एक पिस्तौलें थीं
छ: छ: गोलियां थीं जिनमें
हम फोटो पर मालाएं चढ़ाते थे
धीरे से एक गोली पेट में दाग देते थे

फिर हम मुस्कुराकर जयकार करते थे

पर हमने गांधी को नहीं मारा
हममें नही था गोली चलाने का हुनर
मगर हममें प्रेम भी न था
माला चढ़ाते हम प्रेमहीन रहते
खुद-ब-खुद दब जाती ट्रिगर बंदूक की
गांधी के पेट में धंस जाती

हमने गांधी को नहीं मारा
वह तो तब भी नहीं मरा था
उन्नीस सौ अड़तालीस में

अब रोज धीरे धीरे मरता है
जब फूल चढ़ाते हैं
एक गोली पेट में धंसा देते हैं उसके

यूं आगे चलकर लोग एक दिन मर ही जाते हैं.

-आदित्य


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हमारे पास समय नहीं था

उसकी वह कहानी मेरे साथ तेजी से चलते हुए सीढ़ियां चढ़ गई। हम दोनों जाकर मेट्रो ट्रेन के एक कोने में खड़े हुए। कहानी किताब के पन्नों पर बेतरतीब लेटी हुई थी। वह खूबसूरत कहानी ऊंघ रही थी किताब के पन्नों पर। मैं उसे देखने लगा।

कहानी, भूत की कहानी थी।

खूबसूरत कहानी अपने आंचल लहराती और भूत पेड़ पर बैठा देखता रहता उसे। कहानी के खूबसूरत लिबास देख मेरे पास खड़े सभी सहयात्री कहानी देखने लगे। मैं पन्ने खतम करता फिर उनके पन्ने खत्म कर लेने पर तक उनके चेहरे के कौतूहल को देखता। भूत की हर गतिविधि पर उनकी भौहें सिकुड़ जाती। कभी कभी वे डर से सिहर जाते। उनके रोंगटे खड़े हो जाते। वे कांपकर चिहुंक जाते। खूबसूरत नायिका का जिक्र होते ही वे खिलखिला पड़ते। वे आपस में कंधे उचकाते और एक दूसरे को इशारे करते।

उनके पास भी समय नहीं था। मेरे पास भी नहीं था। हमारे पास समय नहीं था। हम एक दूसरे को नहीं जानते थे। हम भूत और नायिका को जानते थे। अगर हम उन्हें नहीं जानते तो हम एक दूसरे को नहीं जानते।

कहानी के इक्कीसवें पृष्ठ पर जब उनमें से एक का स्टेशन आया तो वह चुप हो गया जैसे भूत ही बन गया हो। उसके पास समय नहीं था और वह किसी तरह भूत को नायिका के साथ छोड़कर उतर गया। उसके पास समय नहीं था। मगर वह खूबसूरत नायिका के बालों की सुगंध लिए किसी तरह ट्रेन से उतरा।

वह उतरते ही शाम की धुंध में खो गया।

हम कौतूहल के साथ आगे बढ़ गए। ट्रेन ने हिचकी ली। भूत पेड़ से कुछ अजीबोग़रीब इशारे करता रहा। कहानी के अगले तीन चार पन्नों तक आते आते मेरा स्टेशन आ गया। कहानी मेरे साथ थी।

ट्रेन रुकने से पहले कहानी में ट्रेन आ गई। उस ट्रेन में बैठी नायिका और उसे अगले स्टेशन एक लाश की बनकर उतरना पड़ा। कहानी खत्म होने के ठीक पहले ट्रेन रूक गई।

मेरे पास समय नहीं था। उनके पास भी न ही होगा। मैं उतर गया। वे नहीं उतरे। उनके पास समय जो नहीं था।

मैं उतर गया। वे नायिका की याद में तड़पते रहे। वे मुझे सशंकित दृष्टि से देखते रहे।

मैं कहीं भूत तो नहीं था? कहीं वो मेरी प्रिय प्रेयसी तो नहीं थी?

क्या हुआ अंत में। क्या हम अंत तक पहुंचे?

वे आशंका से चीखें मारने लगे कि तभी ट्रेन झटाक से खुल पड़ी।

मैं उतरते ही खो गया।
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वर्तमान के टुकड़े…

जैसे जब मैं पर्वतों में था

हरे पेड़, रंगहीन पत्थरों के बीच

मैंने फिर कल्पना की एक निर्मल नदी की

नदी जो हालांकि

पहाड़ की चोटियों से उतर पत्थरों से लड़ टकरा

मेरे सामने से बह निकल रही थी

मैंने उस नदी की कल्पना की

 

जिसमे मेरी अंधी आँखों के सामने श्रद्धालु लोग स्नान कर रहे थे

नदी जो तब वर्तमान थी

असल में वह भविष्य की तरह मेरे अवचेतन पर चस्पा थी.

 

जैसे जब मैं पठारों से होकर गुजरा

पठारों पर वर्तमान में ही सफ़ेद बर्फ की बर्फ़बारी हो गई

संभवतः यह बर्फ़बारी जो भविष्य का हिस्सा थी

तत्क्षण समकालीन थी.

जैसे जब मैं समुद्र तट

रेत पर लिख रहा था अपनी प्रेयसी का नाम

हिंसक लहरें जिसे मिटा मिटा देतीं

मुझे फिर फिर लिखने को

मेरे उसी वर्तमान में

बादलों से होकर गुजरा मेरे वर्तमान का एक जहाज

अतीत के फ्लैशबैक की मानिंद.

जिससे नीचे समुद्र में समुद्री जहाज

समुद्र में लकीरें बनाते कहीं जा रहे होते थे

तब मैं अपने उस तमाम वर्तमान में

अतीत की तरह घटित हुआ

जिसे भविष्य मान लिया गया..!!!